and this is a way of expression... reflection of the world inside us... exploration of the world, we dwell in...
and words from our personal experiences, feelings, interests and learning.


Thursday, September 2, 2010

वो जो बहते थे, आबशार कहाँ...

(from my Diary- 12 July' 2010)

कुछ तो है, जिसकी तलाश है मुझे... कुछ तो मुझे चाहिए, मगर क्या ? ये नहीं पता...
मेरी सुबह भी तो नहीं होती, रात-भर जागा करता हूँ कि एक बार तो सवेरा हो... दिल में एक ख्वाब पलने लगता है... कोई बुला रहा है बादलों के पार, बर्फ से लकदक नाभिडांग की पहाड़ियों के पीछे से, आंचरी ताल के पानी की लहरों के बीच। बांज के पेड़ों को छू कर गुज़रते बादलों के छोटे टुकड़े और देवदार के भीगे पेड़ों से टपकती बूंदों की छुअन, सुबह खिड़की से बाहर फैली हुई बर्फ की चादर के ऊपर चमकता भोर का तारा, कैसे रहूँ अपने हिमालय से दूर, जिसने बाप की तरह गोद में बिठाया मेरे बचपन को। चाँद को उगाने के लिए मैं हथेलियाँ जला लेता, लेकिन दिल बस पत्थर हो गया है और दिमाग एक जंग लगी मशीन। कौन से पानी से धुलेगी ये जंग?? आग से भरे दिल को ले जा कर मानसरोवर में डुबो दिया रे किसीने... अब "वो जो बहते थे, आबशार कहाँ..."

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