and this is a way of expression... reflection of the world inside us... exploration of the world, we dwell in...
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Wednesday, September 5, 2012

वैराग्य और सांसारिकता

उदास खामोशी और एकान्तिकता ज्यों मेरी सदा की संगिनियाँ हों। कारण और परिस्थितियाँ तो चलायमान हैं- बदलते ही रहते हैं। पर ये कसक भरी उदासी ख़ुद  में बिल्कुल निर्दोष है। ज़िन्दगी है और ज़िन्दगी के किस्से हैं। किसी तल्ख़ मौसम ने मन में बीज बोया होगा तो सवाल उपजा- दुनियादारी तो रास आती नहीं, संन्यास लेना बेहतर नहीं होगा? मेरे गुरु लामा ख्यिम्पो रिगज़िन ने हँसते हुए जवाब दिया- "ये वैराग्य है- लिया या दिया नहीं जाता, इस तक पहुँचा जाता है। ये संसारिकता से भाग कर शरण लेने का साधन नहीं है। जाओ पहले दुनियादार बनो, जूझो इससे। साबित तो करो कि संसार तुम्हे विचलित नहीं कर सकता; इसकी खुशियाँ, इसके आँसू, इसके दर्द और उन दर्दों से राहत का मज़ा, ये सब तुम्हे और बाँधे नहीं रख सकता। जितने हम डूबे हैं सांसारिकता में, संसार उससे कहीं गहरा हम में है। खुद को खाली किये बिना कुछ और हो पाना संभव है क्या? राग है दुनिया, उससे होकर गुज़रे बिना वैराग्य कहाँ?" और अब नयी तल्ख़ी  है ज़िन्दगी को ...

जयशंकर प्रसाद की कथा 'देवरथ' आर्यमित्र और सुजाता के माध्यम से मानव-मन के विचलन को जैसे उद्घाटित करती है। इन्द्र-प्रजापति संवाद में जैसे इन्द्र के शब्द हैं- "सब कुछ से मुक्त" हो जाना तो "कुछ भी नहीं होना" ही है [बृहदारण्यकोपनिषद]। ये वैराग्य और सांसारिकता "यथास्तिथि से पार जाने (और पार पाने) की अन्तर्निहित भावना मात्र है" [ऐतरेय ]।

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