हाल ही में पढ़ी हुयी कुंवर नारायण जी की एक कविता दिमाग़ में चक्कर काट रही है-
"उसके यह सन्देह प्रकट करते ही कि पृथ्वी नहीं
शायद सूरज घूमता हो
झूठ या सच से नहीं
"उसके यह सन्देह प्रकट करते ही कि पृथ्वी नहीं
शायद सूरज घूमता हो
पृथ्वी के चारों ओर !
उसके चारों ओर इकट्ठा होने लगते
उतावले लोग। फिर एक बार
गैलीलियो की तरह
उसकी हत्या करने के लिए उतावले लोग।
झूठ या सच से नहीं
इस तरह यकीन रखने वालो के बहुमत सेकितना सरल होता है एक 'सच' पर यकीन करके आँखे मूँद चलते चले जाना। परख करना ही खोट होता है, क्योंकि हम तो हरवक़्त 'सच' जानते होते हैं। फितरत है... नज़रअंदाज़ कर देना कि हर सच महज़ एक विशिष्ट दृष्टिकोण होता है, जो पुख्ता या कच्चा हो सकता है लेकिन संपूर्ण नहीं। किसे पता था कि पूरब में सूरज उगता है, या कि सूरज उगता है इसलिए पूरब है।
डरता हूँ
आज भी! "
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