(from old leaves of my diary- 04 April' 2006)
“जैसे समुद्र की हर लहर
बिखरा जाती है
रेत पर
लौटते हुए
उसी तरह ढेरों शब्द
बिखरा दिये हैं
मेरे मन ने
चारों ओर
उलझ गया हूँ
शब्दों की भीड़ में
परन्तु
कहाँ है वह शब्द
जिसके बिना मेरा वाक्य अधूरा पड़ा है.”
उसी तरह ढेरों शब्द
बिखरा दिये हैं
मेरे मन ने
चारों ओर
उलझ गया हूँ
शब्दों की भीड़ में
परन्तु
कहाँ है वह शब्द
जिसके बिना मेरा वाक्य अधूरा पड़ा है.”
(कवि विश्वनाथ)
अक्सर कुछ ऐसी ही स्तिथि में रहते हैं हम सब. अपने चारों ओर एक जाल सा फैला लेते हैं- शब्दों का, विचारों का, भावों का. अपने ही रहस्य में गुम होते जा रहे हैं हम. और खोज रहे हैं, अपने अधूरे वाक्य के लिए एक सम्पूर्ण शब्द. ढूंढ़ रहे हैं उसे, जो हमारे अधूरे व्यक्तित्व की पूर्णता है.
किन्तु ये तो एक प्यास है, महाकाल के चिर प्रवाह में बस एक क्षण की प्यास. एक तृषित मन की दशा या तो बस तृषा परिभाषित कर सकती है या तृप्ति. हम जीते हैं, बस एक पल के लिए, बस एक पल की पूर्णता के लिए. पर कितनी आकर्षक है ज़िन्दगी भर की प्यास, जो चाहती है बस तृप्ति की एकमात्र बूँद. हम तलाशते हैं, अपने वज़ूद को साबित करने वाला एक शब्द, हमारी तृप्ति की वो एक बूँद, काल की अनन्तता में सिर्फ हमारे ही एक पल को. बेहद ख़ूबसूरत है ये तलाश, क्योंकि यही तो है हमारे ज़िन्दा होने का सबूत.
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