एक समय था जब मैं लिखना सीख रहा था- अपने अन्तस् को काग़ज़ पे उकेरना- कविताएँ, कथाएँ और बातें। नया उत्साह था, थोड़ा बहुत प्रकाशित भी हुआ। फिर कुछ हुआ कि लिखने का मोह मर गया। बरसों-बरस न कुछ लिखा, न कुछ छपा। लेकिन इंसान कब तक अपने आप को खुद से ही छिपाए रख सकता है... अपनी एक पुरानी रचना आप सब से साझा कर रहा हूँ...
यह कविता 10 वर्ष पहले ईसवी 2002 में प्रकाशित हुई जब मैं 13-14 वर्ष का था। यह मेरा अब तक का आख़िरी प्रकाशन है। हाँलाकि लेखन एकदम कच्चे दर्ज़े का है, लेकिन शुरुआत तो सबकी कच्ची ही होती है। उन दिनों मैं साम्यवादी विचारों से बहुत प्रभावित था। घर पर दर्शन का अध्ययन करता था, सो आत्मा और मन की शास्त्रीय धारणा की झलक भी दिखती है।
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