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Tuesday, March 27, 2012

क्यों बोये थे हीरे-मोती इस आकाश में...

                 बैठा था कुछ यादों के सहारे अपने कन्धे टिकाये, बन्द आँखों से किन्हीं ग़ुम नीम अंधेरों के आँचल के इंतज़ार में। कुछ खोये हुए पलों की कसक लिए, कुछ बीती खुशबुओं की महक लिए... कुछ आँसुओं की खुश्की आज भी मेरी हथेली फैला के अपनी नमी मांगती है। मन के कबाड़ख़ाने की ओर निकल रहा था, कुछ कुरेदने, कुछ समेटने, कुछ सहेजने के लिए... कि सड़क के किनारे खड़ी ये 'श्रीकांत वर्मा' की एक कविता मिल गयी-

तुमने वर्षांत पर मुझे एक बाली दी धान की
क्वांर में उजाली दी कांस की
कातिक में झउहा भर फूल हरसिंगार के
अगहन में बंसी दी बांस की
माघ में दिया मुझको अलसी का एक फूल
फागुन में छटा दी पलाश की

चैत में दिया मुझको नया जन्म
नहर की  मछलियाँ दीं मुझको वैशाख में
जेठ में मुझे सौंपी प्रिय, तुमने बेकली
छुआ, हरा किया मुझे, वर्षा के पाख में।

मैं लेकिन जल भर-भर लाता हूँ आँख में
क्या जाने मेरा मन कैसा हो आता है।
क्या कुछ ढूंढा करता हूँ पीछे 
छूट गए वर्षों की राख में।

क्या जानूं क्यों पीछे और लौट जाता हूँ
मैं बारह मास में
लगता है बोये थे मैंने जो हीरे-मोती इस आकाश में
जीवन ने बिखरा दिया है सब, यहाँ-वहाँ घास में।

छूंछापन सोया है मन के समीप, बहुत पास में।
मैंने क्यों बोये थे हीरे-मोती इस आकाश में?  

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